मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

काल के 21 ब्रह्मांड यानी माया देश में आगमन


जब भी प्राणी का मनुष्य-योनी में जन्म लेने का समय आता है। तब वह पिता के वीर्यकण के द्वारा माता के "रज' में मिलकर उदर में पड जाता है। वहाँ पर एक रात्रि में कँवल बन जाता है। पाँच-रात्रियों में गोलाकार-अण्ड बन जाता है। तथा दस रात्रियों में बेर के मानिन्द-कठोर हो जाता है। अण्डज-प्राणियों का अण्डा बन जाता है। एक-मास पश्चात् उसका सिर बन जाता है। दो-महीनें में उसके हांथ-पाँव आदि बन जाते है। तीसरे महीनें में अस्ति, चर्म, स्त्री-पुरूष के चिह्न, नख, रोम आदि बन जाते है। चौथे-महीनें में सातों धातुएँ उत्पन्न हो जातीं है। पाँचवें-मास में क्षुधा-पिपासा आदि का ज्ञान होता है। छटवें-महीनें में वह झिल्ली-युक्त होकर दाहिनी-कोख में चमकने लखता है। उस समय वह माता के भोजन तथा जल, विष्ठा आदि में पडा "यातना-भोगता" है। उसके अंग कोमल-कमल होते है। वह किटाणुओं द्वारा तथा माता के खाये हुए चरपरो, लेह, अम्ब भोजन् से उसे महान-पीडा होती है। वह पिंडात्मक-प्राणी-प्रकृतिरूप-माया के उदर के बन्धन में कसा रहकर तडफडाने लगता है। उस क्षण् #भगवान्" की प्रेरणा से उसे स्मरण्-शक्ति उत्पन्न हो जाती है। और वह उस समय अपने सौकडों-जन्मों को स्मरण् करके रोने लगता है। व्याकुल होने लगता है। सातवें-महीनें में उसकी विवेक-शक्ति जाग्रत हो जाती है। वह प्रसूति-वायु से प्रेरित होकर इधर-उधर घूमने लगता है। उसे गर्भ में अति-कष्ट प्राप्त होता है। तब वह #परमात्मा" से प्रार्थना करता है। #जीव_कहता_है; हे महान-ईश्वर ! मैं बडा पापी हुँ। मुझे इस अधोगति से बाहर निकालिये। आप ही इस संसार के उत्पत्ति-कर्ता है। आप अविकारी, अविनाशी तथा माया से रहित है। मैं आपको प्रणाम् करता हुँ। मैं अहंकार, इँद्रिय आदि गुणों से युक्त हुँ। और आपप्रकृति और पुरूष' के नियन्ता होने के कारण् इन दोनों से परे है। सर्वज्ञ है। माता का उदर साक्षात् मल-मूत्र तथा रूधिर का कुण्ड है। मैं इस नरक में पडा हुआ कष्ट भोग रहा हुँ। हे परमात्मा ! आप मुझ दीन को यहाँ से शीघ्र निकालिए। हे दिनबन्धु ! मै निरंतर आपका भजन् करूँगा। तथा आप ही की शरण् में रहुँगा। उस संसार-कष्ट से तो यह उदर का कष्ट ही ठीक है। पॄथ्वि पर गीरते ही आपकी-माया-जीव को घेर लेती है। मुझे ऐसा मार्ग सुझाऐं जिससे मैं संसार-चक्र से मुक्त हो जाऊँ? इस तरह प्रार्थना करते हुऐ उदर-वायु उसे बाहर ढकेल देती है। इस तरह वह बारह आकर छटकटाने लगता है। पॄथ्वि में आते ही उसका सारा-ज्ञान लुप्त हो जाता है। और वह रोने लगता है। श्नै: श्नै: प्रकृति में स्थित अन्य जीव-संबंधि माया में फँसे मायामय लोग उस बालक को मोह लेते है। और वह हँसनें लग जाता है। इस प्रकार उसका बालपन, कौमाराव्सथा, समाप्त होने पर #युवा हो जाता है। और अज्ञानवश कामासक्त होकर #माया के विषय-वासनाओं में लीन हो जाता है। उदर में "भगवान्" से कि हुई प्रतिज्ञा उसे भुल जाती है। वह अपनी ईच्छा-शक्तिके लिए अनेक पाप करता है। अविद्या में फँसकर कर्मसुत्रमें बंधता जाता है। वह ब्रह्म की वैष्णवीमाया-रूपी-स्त्री के चक्कर में ऐसा फँसता है। कि सर्वस्व खो बैठता है। इस प्रकृतिरूपमाया की शक्ति इतनी प्रबल है। कि पॄथ्वी के बडे-बडे भू-विजयी-वीरों को अपने वश में कर लेती है। इस हेतु हे जगत्-जीवांतकों #आत्मज्ञान्" की ओर लौटो। *परमात्मा-प्रत्येक-आत्मा* के लौटने की प्रतिक्षा में है। !!!!! परमात्मा कबीर !!!!!

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